
कजरी तीज को कजली तीज भी कहा जाता है। यह भादो मास में कृष्ण पक्ष की तृतीया को मनाई जाती है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह तिथि अगस्त महीने में आती है। मुख्य रूप से यह पर्व महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। प्रमुखतः यह त्यौहार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और बिहार समेत हिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रसिद्ध है। इस तीज को कई जगह बूढ़ी तीज व सातुड़ी तीज भी कहा जाता है। बाकी तीज की तरह यह तीज सुहागन महिलाओं के लिए प्रसिद्ध है। वैवाहिक जीवन की सुख और समृद्धि के लिए यह व्रत किया जाता है।
इस दिन सुहागन महिलाएं पति की लम्बी आयु तो कुंवारी कन्याएं अच्छा वर पाने के लिए यह व्रत करती है। इस दिन जौ, गेहूँ, चने और चावल के सत्तू में घी और मेवा मिलाकर तरह तरह के पकवान बनाये जाते है। चाँद देखने के बाद भोजन ग्रहण कर व्रत खोला जाता है। इस दिन गाय की विशेष रूप से पूजा की जाती है। आटे की ७ लोइयां बनाकर उन पर घी, गुड़ रखकर गाय को खिलाने के बाद भोजन किया जाता है। इस दिन कजली गीत गाने की विशेष परम्परा है।
कजरी तीज कथा
एक गांव में गरीब ब्राह्मण का परिवार रहता था। ब्राह्मण की पत्नी ने भाद्रपद महीने में आने वाली कजली तीज का व्रत रखा और ब्राह्मण से कहा कि आज मेरा तीज व्रत है। कहीं से मेरे लिए चने का सत्तू ले आइए। लेकिन ब्राह्मण ने परेशान होकर कहा कि मैं सत्तू कहां से लेकर आऊं भाग्यवान। इस पर ब्राहमण की पत्नी ने कहा कि मुझे किसी भी कीमत पर चने का सत्तू चाहिए। इतना सुनकर ब्राह्मण रात के समय घर से निकल पड़ा। वह सीधे साहूकार की दुकान में गया और चने की दाल, घी, शक्कर आदि मिलाकर सवा किलो सत्तू बनवा लिया। इतना करने के बाद ब्राह्मण अपनी पोटली बांधकर जाने लगा। तभी खटपट की आवाज सुनकर साहूकार के नौकर जाग गए और वह चोर-चोर आवाज लगाने लगे। ब्राह्मण को उन्होंने पकड़ लिया। साहूकार भी वहां पहुंच गया। ब्राह्मण ने कहा कि मैं बहुत गरीब हूं और मेरी पत्नी ने आज तीज का व्रत रखा है। इसलिए मैंने यहां से सिर्फ सवा किलो का सत्तू लिया है। ब्राह्मण की तलाशी ली गई तो सत्तू के अलावा कुछ भी नहीं निकला। उधर चाँद निकल आया था और ब्राह्मण की पत्नी इंतजार कर रही थी। साहूकार ने कहा कि आज से तुम्हारी पत्नी को मैं अपनी धर्म बहीन मानूंगा। उसने ब्राह्मण को सत्तू, गहने, रुपये, मेहंदी, लच्छा और बहुत सारा धन देकर अच्छे से विदा किया। सबने मिलकर कजली माता की पूजा की। कजली माता का व्रत रख कर जैसे ब्राह्मण के घर उन्नति हुई वैसे ही सबके घरों में कुछ न कुछ उन्नति हुई।

इस दिन नीमड़ी माता की पूजा की जाती है। थाली में निम्बू, ककड़ी, केला, सेब, सत्तू, रोली, मोली, अक्षत आदि रखे जाते है। सबसे पहले नीमड़ी माता को जल व रोली के छीटें दे कर चावल चढ़ाये जाते हैं। फिर दीवार पर मेहंदी, रोली और काजल की १३-१३ बिंदिया ऊँगली से मांडी जाती हैं। मोली चढ़ाने के बाद मेहंदी, काजल और वस्त्र चढ़ाए जाते हैं। तत्पश्चात फल और दक्षिणा चढ़ा कर पूजा के कलश पर रोली से टिका लगाकर लच्छा बांधा जाता हैं। पूजा स्थल पर बने तालाब के किनारे रखे दिप के उजाले में निम्बू, ककड़ी, नीम की डाली, नाक की नथ, साड़ी का पल्ला आदि देखा जाता हे। और फिर चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जाता हैं।
कजली लोकगीत
देखो सावन में हिंडोला झूलैं
छैला छाय रहे मधुबन में
आई सावन की बहार
हरि संग डारि-डारि गलबहियाँ
हरि बिन जियरा मोरा तरसे
झूला झूलन हम लागी हो रामा
अजहू न आयल तोहार छोटी ननदी
तरसत जियरा हमार नैहर में